पितृ गृह से जब इक धारा संकरी चल कर आई
वन,उपवन,हिम पर्वतों से हुई उसकी यूँ विदाई
अनजानी मंजिल है उसकी और अपरिचित सी राह
दूर समंदर तकता रस्ता और आंखों में रौनक छाई।
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बूँद बूँद रिसती,है वो दुर्बल,निर्बल धारा
ऊंचे नीचे रस्ते,नपे-तुले पग धरती धारा
जाने कब अल्हड़पन इसमें भर आया है
दूर समंदर उसके इंतजार में जीता अपना जीवन सारा।
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लिखे गए अनंत गीत,नदियों के संघर्षों पर
मीठापन मिट जाने के, गृह के विछोह दर्दों पर
प्रकट नहीं कर पाया समंदर कभी अपने एहसासों को
लेकर लांछन खारेपन का,जीता है अनंत आस पर।
अपर्णा शर्मा
Dec.26th,25

sunder
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