हे धरा!

हे धरा! सदा दात्री,अनुकम्पित कर
अबोध चित्त में संवेदना संचरित कर।

प्रथम ग्रास माटी ही धरी थी मुख में
आचमन जान,तूने भर लिया था अंक में।
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सर्वस्व दे ,पोषित हुआ तेरे आंचल में
रंगत जीवन की सब तेरे आशीष से।

निश्छल जान तू दात्री बनी रही
पुत्र के मान में, प्रभास खो रही।

मूढ़,अज्ञानी,हे वसुन्धरे! शोषित करता रहा
ग्राही ऐसा हुआ कि स्व कर्तव्य न समझ रहा।
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धन्य है माँ,तू स्नेह लुटाती स्वार्थी पुत्र पर
सर्वरंग से श्रृंगार करूंगा कर्तव्य मान कर।

तेरे आंचल की छाया तले  बढ़े तेरे वक्ष पर
संरक्षित होगी तू, विश्वास रख इस सुबोध पर।
अपर्णा शर्मा
March,7th,25

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