तजुर्बा

धुँधला गई थी जो लकीरें
वक़्त बदलते ही गहरा गई
मुलाकात होते ही उनसे
सब शिकायतें धरी रह गई .
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वक़्त की चादर ने ओढ़ी थी
जो आज से मूँद कर आँखे
वक़्त का कमाल तो देखो जरा
उसी चादर पर कसीदे निकाल रही.
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हालात से मजबूर हो कर
बंद करदी थी जो वक़्त ने किताबे
वक़्त के सही और सही होते ही
खुली किताब सी सारी पढ़ी जा रही.
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वक़्त के सितम देखो,चेहरे पर
लकीरों से खिंचते चले गए
वक़्त की मेहरबानी रहनुमा पर
ऐसी रही कि उसे तजुर्बा नाम दे रही.
अपर्णा शर्मा
June14th,24

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