अगर मगर

पुरानी होती डायरी के पीले होते पन्नों में
न जाने कितने अलसाए ‘अगर’ ‘मगर’ है बिखरे
आज भी कुछ ‘अगर’, काश की चाशनी में हैं लबालब
वहीं कुछ ‘मगर’ डायरी की दहलीज पर खड़े ठिठके से।
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कहीं किसी पन्ने पर,’किंतु’ यक्ष सवाल सा डटा
और कहीं ‘परंतु’, जवाब देकर लाजवाब सा दिखा
समय ने दफन कर दिए थे जो अपने से “किंतु,परंतु’
आज बेलौस सा मैं,उनकी ताकतें तौलता दिखा।

डायरी की ज़िल्द में सिल दिए थे जो ‘ये’ और ‘वो’
सब उधड़ कर,छितर कर, ताकतें हैं इस कदर वो
बे-आस सा मापता हूँ अब उन परों के हौसले
मलाल लिए कि,न ‘ये’ हो सका, न कर सके ‘वो’।
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अगरबत्ती के कवर से खुशबु महकाई थी डायरी में
सफेद पन्नों को विरासत बना दिया है काली स्याही ने
पन्नों में धमाचौकड़ी मची है ये वो,किंतु परंतु,अगर मगर की
दिमाग में उमड़ते शब्दों को, रंग जो दिया है स्याही ने।
अपर्णा शर्मा
May24th,24

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