कंटक

हर कली पुष्पित हो झूम रही
उपवन को सुरभित कर रही
प्रफुल्लित मन में जगती तृष्णा
पुष्प पाने की आस जगा रही।

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विपुल अभिलाषा सदा रखे
पुष्प जो शूल कंटको से घिरे
मन प्राण में लालसा को जगाए
अंगीकार को मन उपवन तरसे।

हर कली पुष्प के समीप ही
पत्तियों के साथ साथ शूल भी
कुसुम को रक्षित कर रहे
एषा बनी आकाश कुसुम सी।

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कंटक नहीं ये कवच से डटे
पुष्प की रक्षा को अडिग खड़े
कोई भी प्रहार करे पुष्प पर
लहू-लुहान कर उसे जा चुभे।

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