बेबस गौरैया

जंगल नहीं मांगे गौरैया ने
उसको घर आँगन ही प्यारा था
धरा से आसमाँ तक घुमा उसने
अब घर आंगन भी हुआ पराया था।

अब घर में,न है ऐसा कोई कोना
जिसमें घोंसला बना सके
तिनके, घास फ़ूस से बिन कर
वो अपना घर बसा सके।

थक-हार कर, आँगन में
बैठी चिड़िया सोच रही
मानव जाति हुई लालची
किसी दूजे की न सोच रही।

जंगल काटे,खेत देखो बेच रहे
सुविधा हेतु पर्यावरण को नोच रहे
प्रदूषण की काल कोठरी बनी धरती
इसकी भी सुध, बिल्कुल न ले रहे।
अपर्णा शर्मा
Oct. 25th,24

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