बुनता रहा,ठहाकों की गूंज से खुशनुमा सी चादर
मुस्कानों से कढ़े बेल बूटे, बढ़ा गए अपनों का आदर
काश! स्नेह में भीगता ही रहता ये मन का आंचल।
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नाराजगी के दो शब्द चुभ गए दिल में,जो कील से
नफरत का ताबूत तैयार था उन शब्दों के स्मरण से
काश!वो कील से शब्द न होते कभी किसी वार्तालाप में।
चिंता के क्षणों में, समस्या की गठरी को फेंक आते
रोटी से रोटी की जंग,आसानी से यूहीं जीत जाते
काश! पैसे की दौड़ में, गर लालच की होड़ न पालते।
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यहीं सब दूर से ताकता,झांकता रहा ताउम्र
और कोशिश रही पढ़ लूँ मैं, चेहरों की दास्तान
काश! पारदर्शिता से भरा होता अपना आसमान।
अपर्णा शर्मा
Oct.4th,24

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