किसी तरह रात को विदा कर के
दरवाजे खोल, दहलीज पर तड़के
छिड़क देती है,रोज पानी के छींटे
करती हैं वो रोज इंतजार।
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किवाड़ के पल्ले की ओट में
घोर रात में या उजली भोर में
सदा आशीष देती है मन मन में
करती है वो रोज इंतजार।
यद्यपि सामाजिक प्रतिष्ठा को
और पुत्र के उज्ज्वल भविष्य को
भेजा है परदेश टुकड़ा-ए- जिगर को
करती फिर भी रोज इंतजार।
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जानती है आगमन की तिथि हैं तय
जानती है समय करती व्यर्थ ही व्यय
फिर भी मन को बाँटकर देखती है बाट
करती हैं वो अनवरत इंतजार।
अपर्णा शर्मा
July26th,24

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