हे पुरुष!

हे पुरुष!
बिन स्त्री तुम निरीह से
सदा अस्तित्व से परे
संबल बन सभी का
खुद को गवांते जा रहे।
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हे पुरुष!
अपने लिए भी जियो जरा
परवाह से तू क्यूँ कर डरा
सबके लिए जीता रहा सदा
जरूरत पर अपने करे किनारा।
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हे पुरुष!
सब कुछ कैसे सह लेता
अपनी पहचान खो देता
पुरुषत्व का कल्पित ताज
और भी बोझ बढ़ा देता।
अपर्णा शर्मा
Nov.19th,23
( अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस पर)

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