हिम के पिघलते ही
आविर्भाव होते ही
निकल पड़ी गंतव्य को
रिसती, अविचल सी.
https://ae-pal.com/
अल्हड़पन से मचलती
कंकर, पत्थरों को रौंदती
कुछ को हटा, कुछ साथ ले
प्रेम-परकाष्ठा में विकलती .
शनैः शनैः, बनी वो विक्षनरी
शांत बहती,अत्यंत धीर धरी
वृद्धा हो, अशेष पतली धारा
लक्ष्य को आतुर, मार्ग खोजती.
https://ae-pal.com/
अंत में,अस्तित्व खो समन्दर हुई
मीठी सी नदी अब खारी हो गई
चटकी तो होगी चाहत और डिगा होगा विश्वास भी
आखिर क्या थी मैं ? क्या हो गई?
अपर्णा शर्मा
Nov.17th,23

Leave a comment