दीवारें

जमीन के खिसकते ही
छत खुद ब खुद छिनते ही
ठौर जब कोई नहीं रहा
जिंदगी दीवारों के आसरे रही।
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संकुचित मन के विस्तार से
स्व से स्वार्थ तक के प्रसार से
आघात में अन्तर जब दरकता
हल निकलता तब दीवार से।

जानती पहचानती है करीब से
हर्ष और वेदना को समीप से
अपने में ज़ब्त कर सभी राज
दीवार भीगती स्वयं आँसुओं से।
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धैर्य की धनी सदा से रही
चुप सब कुछ सुनती रही
मौन उसका टूटता नहीं
दीवार कुछ कहती नहीं।
अपर्णा शर्मा
August 4th, 23

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