पिता

अंगुली पकड़ कर मेरी,
उन्होने दुनिया थमा दी
अपनी आँखों से उन्होने
सारी दुनिया दिखा दी।

लड़खड़ाते पैरों को
संभलना सिखाया
ख़्वाबों को मंजिल का
रास्ता सुझाया।
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काँधे पर बैठा मेला
ठेला खूब घुमाया
यूँ ही नाम और मान
से परिचय कराया।

मन की कुलबुलाहट को
पहचान जाते है
हर परेशानी का वहीं
समाधान होते है।

ख़्वाबों को हकीक़त में
बदल देते है
हर खुशी गम में हरवक़्त
साथ देते है।
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वो जलते है,तपते है,
सूरज से
मेरे लिए सुकून है,छाया
है, वृक्ष से।

छोड़ दिया मुझे, दुनिया
दारी सीखा कर
वज़ूद पा सकूँ,जी सकूँ
मुस्कुरा कर।
अपर्णा शर्मा
June 18th, 23
(विश्व पितृ दिवस पर विशेष)

पर्वत (सहेज ले तुझे)

प्रस्तरों,शिलाओं गठित,शक्ति का प्रतीक,
अचलित,प्रहरी,नगपति रुक्ष सा सर्वथा गर्वित।

हरित आवरण, श्वेत किरीट शोभित तन में,
नदिया,झरने,पुष्प,लता धारित अलंकार से।
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नदियों,प्रवाह का उद्गम, संगम सब तेरे अंक में,
हर धारा शक्ति बसी है,हरीतिमा के रूप में।

पिता सा कठोर,दृढ़तामय रुक्ष सा आवरण,
हृदय माँ सा स्नेही,लुटाता निधि का भंडारण।
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चुहूं ओर बिखरी जड़ी-बूटियाँ,फूलों की घाटियाँ
अमृत सब समाए,फैली सर्वत्र इनकी ही सुरभियाँ।

देवभूमि है यही,खुलता अध्यात्म का द्वार,
पांडवों ने भी पाया था यहीं स्वर्ग का द्वार।

सभीगुणों का धनी,प्रकृति भी तुझ से परिपूर्ण,
सहेज ले तुझे,अन्यथा सृष्टि बनेगी अपरिपूर्ण।
अपर्णा शर्मा
June 16th, 23

ख़त



आज,अलमारी जब साफ़ करने लगी
कोने में छुपी संदूकची,मुझे बुलाने लगी।

ठिठकी सी मैं भी,लालच में उसे तक रही
लालच दिखा,वो मुझ पर जोर से हंस रही।
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झट से संदूकची खींची,खोल कर यादें समेट ली
नज़रे बचा,चुपके से खतों की मैंने कोली भर ली।

संदेशों से भरे पत्र आज भी करीब कर देते हैं रिश्ते
ख़त में सहेजे भाव,जैसे एहसास ए समन्दर की लहरे।

कुछ घर के,मित्रों के,नौकरी का नियुक्ति पत्र भी इस ख़ज़ाने में
हर बार,अलग संदेश होता है प्रिय के दो पंक्ति के पत्र में।
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पीले कार्ड,अंतर्देशीय,कुछ लंबे से पत्र मित्रों के
जिनमे,जिक्र हैं काम के और कुछ लफ्फाजी के।

ख़त ले गए आज,बीते समय के हल्के फुल्के से दिनों में
चेहरे पर छा गया नूर,छिप गया था, जो कुछ दिनों से।
स्वरचित:
अपर्णा शर्मा
June 9th, 23

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