तृष्णा

तृष्णा ऐसी प्यारी थी
आज पर हुई भारी थी
हिमालय सब देख रहा
मानवता आज हारी थी।

प्रदूषण फैला चारों ओर
कंक्रीट का जंगल घनघोर
पतली सी धारा नदियों की
पर्यटक करते विकट शोर।
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यक से मौसम ऐसे बदला
मानव पल भर में ठिठका
काल उगलती नदिया देखी
उत्थान को यूँ मिटते देखा।
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पर्वतों में अब बादल फट रहे
मैदान ताल तलैइया बन रहे
अब तो कुछ समझ बढ़ाओ 
हम अपनी ही हानि कर रहे।
स्वरचित:
अपर्णा शर्मा
Sept. 5th,25

प्रेम के हो जाने से

सुवासित हो गया मन,प्रेम के हो जाने से
मुखरित हो गया मौन प्रेम के हो जाने से।
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प्रेम ही सीखाता सभी,उत्तम आचरण
बन गया वास्तविक मनुष्य,प्रेम के हो जाने से।
अपर्णा शर्मा
Sept.2nd,25

अनकही

मंज़िल की तलाश में
अनजानी सी राह में
अवरोधों से बेफिक्र
चलते रहे ,साथ में।
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हाथ को लेकर हाथ में
डूबे एक से विचार में
हम बनकर हमसफर
मंजिल की तलाश में.
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दिखे नहीं किसी विवाद में
पड़े नहीं कभी तकरार में
बस साथ का लिए यकीं
आ गए आखिरी पड़ाव में।
अपर्णा शर्मा
August 29th, 25

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