तृष्णा

तृष्णा ऐसी प्यारी थी
आज पर हुई भारी थी
हिमालय सब देख रहा
मानवता आज हारी थी।

प्रदूषण फैला चारों ओर
कंक्रीट का जंगल घनघोर
पतली सी धारा नदियों की
पर्यटक करते विकट शोर।
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यक से मौसम ऐसे बदला
मानव पल भर में ठिठका
काल उगलती नदिया देखी
उत्थान को यूँ मिटते देखा।
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पर्वतों में अब बादल फट रहे
मैदान ताल तलैइया बन रहे
अब तो कुछ समझ बढ़ाओ 
हम अपनी ही हानि कर रहे।
स्वरचित:
अपर्णा शर्मा
Sept. 5th,25

अनकही

मंज़िल की तलाश में
अनजानी सी राह में
अवरोधों से बेफिक्र
चलते रहे ,साथ में।
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हाथ को लेकर हाथ में
डूबे एक से विचार में
हम बनकर हमसफर
मंजिल की तलाश में.
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दिखे नहीं किसी विवाद में
पड़े नहीं कभी तकरार में
बस साथ का लिए यकीं
आ गए आखिरी पड़ाव में।
अपर्णा शर्मा
August 29th, 25

बंद दरवाजे का दर्द

जहाँ सूरज के उगने से पहले जिदगी जग जाती थी
जागा,जागा होता घर और तुलसी पूजी जाती थी
सुबह सुबह का हो-हल्ला,जैसे उत्सव हो घर में
दरवाजे पर नहीं ये ताला,लगा है उस उत्सव पे।
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घर के आंगन में बड़ीया,अचार पापड़ का फैलाव
बूढ़ी दादी का बक्सा था और बच्चों का होता जमाव
चूड़ी पायल की खनखानाहट थी जिस आँगन में.
दरवाजे पर नहीं ये ताला,लगा है उस आनंद पे।
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प्रिय की प्रतीक्षा में साँझ ढले यहीं दरवाजा
सजता था दीपक और इतराता था दरवाजा
प्रिय के आने से घर भर जाता था रौनक से
दरवाजे पर नहीं ये ताला,लगा है उस रौनक पे।
अपर्णा शर्मा
August 22nd,25

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