ज़िंदगी रुकती नहीं

यूँ तो बहुत दिनों से चल रही थी तैयारियां
समेट कर रख ली थी अपनी लकुटी कमरिया
धीरे धीरे उम्र का तकाजा बढ़ाती रही बीमारियाँ
जी ली थी,फिर से उसी में,सारी नासमझियां।
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वालदैन का अपने ही बच्चों को वालदैन बनाना
जैसे फिर से  बचपन पर आकर ठहर जाना
जी कर पूरी ज़िंदगी ज्यूं हो दुनिया का चक्कर
और एक सुबह चुपके से अलविदा कर जाना।
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रुके हुए सब जज़्बातों का बह जाना
यादों का कसकर दिल से जकड़ जाना
ज़िंदगी ऐसे ही चलती वो रुकती नहीं
धीरे से,वो वज़ूद अपने में समा जाना।
अपर्णा शर्मा
Oct.10th, 25

पतझड़

शरद ऋतु के आते ही, रंग बरसाते वृक्षों को देखा
धीमे-धीमे फिर मौसम का मिजाज बदलते देखा।
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पतझड़ तो मौसम का फेरा, फिर वृक्षों को हरे होते देखा
जिस घर आया पतझड़, उस घर को खण्डहर होते देखा।
अपर्णा शर्मा
Oct.7th,25

हाँ! मैं हूँ रावण

श्रेष्ठ विद्वान था एक ब्राह्मण
ब्रह्मपौत्र और कुल यशस्वी गण
चूहूँ ओर फैला था उसका मान
नाम था उसका अभिमानी रावण।
कहता था अट्ठाहास लगा वो
हाँ! मैं लंकेश, मैं हूँ रावण।

जिसके महल में हवा का पहरा
कुबेर भी जबरन था वहां ठहरा
शनि ग्रह जिसकी करे चाकरी
रावण था वो बहुत ही अहंकारी।
कहता था अट्ठाहास लगा वो
हाँ! मैं लंकेश, मैं हूँ रावण।
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श्रेष्ठो में श्रेष्ठ,था भ्रात प्रेम में
काल बुलाया था बहिन प्रेम में
दांव लगा के अपने पूरे कुल का
भयभीत नहीं था वो पतन से।
कहता था अट्ठाहास लगा वो
हाँ! मैं लंकेश, मैं हूँ रावण।

महान तपस्वी और बड़ा ही गर्वीला
शिव को संग ले चला,ऐसा हठीला
जानता था वो सब राम की लीला
रामबाण पर तज दी अपनी लीला।
कहता था अट्ठाहास लगा वो
हाँ! मैं लंकेश, मैं हूँ रावण।
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शिव का भक्त और राम हुए जिसके हंता
जो था तपस्वी, वीर और प्रजापति लंका
शेष नहीं था ,अब उसकी माया का डंका
राम है ईश,ना थी अब उसके मन में शंका
जो कहता था, अट्ठाहास लगा
हाँ, मैं लंकेश, मैं हूँ रावण।
अपर्णा शर्मा  Oct. 2nd,25

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