कुतुबखाना

कुछ किताबें, जो समझ में न आई थी उन्हें सहेजते रहे
कुछ किताबें, जो पसंद आई, उन्हें यूहीं जमा करते रहे।
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ऐसे ही कुछ किताबे है ,जो यदा कदा मिलती रही तोहफे में
इस लत-ए-जमा को, कमाल-ए कुतुब खाना कह रहे। (*कुतुबखाना- library )
अपर्णा शर्मा
July 15th, 25

आया सावन

चारों ओर से धरा को घेरा
उमड़-घुमड़ जब आए मेघा
तेज हवा में,सब थर-थर कांपे
मार के फेरा, वो गए मेघा।
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रोज-रोज, अब खूब छकावे
गरज-गरज के,क्रोध दिखावे
कार्यों में,रोज विलंब करा कर
उड़-उड़ जावें, काले मेघा।

चतुर्मास के कोतवाल हुए
मनमर्जी से, मेहरबान हुए
कहीं सूखा, कहीं बना सैलाब
आगत का फल, लिख रहे मेघा।
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कहीं-कहीं खूब प्रेम उड़ेले
सागर में बदले,नदी,नाले
उफान मचाकर धरती पर
फिर कुछ न सोचें ये मेघा।
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‘हरेला’ की नव पौध पुकारे
धरती अंदर,नन्हा बीज़ पुकारे
त्राहि-त्राहि मचे, बिन मेघ के
बरस-बरस धरती नम करते मेघा।
(हरेला- उत्तराखंड का पर्व )
अपर्णा शर्मा
July11th,25

बोझ

हल्के ,फुल्के, भरे गुब्बारे से
जो जीवन रंगते, मधुर सपने।
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जाने कैसे, काँधे पे आ बैठे
बोझ सरीखा,अब खींच रहे।
अपर्णा शर्मा
July8th,25

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