जब चला था वो सफर को
काफिला संग था साथ को
चलता रहा आगे बढ़ता रहा
नाज़ से देखता वो सभी को।
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सभी मंजिल के इस सफर में
चल पड़े ऊँची नीची डगर में
रुक गए, कुछ मुकाम पा गए
अब भी थे सभी, संग साथ में।
वो सबसे अलग दिखने लगा
बैठक में विलग सा रहने लगा
ठहाके गूँजते जब फ़िजा में
वो बुत बना चुप रहने लगा।
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हौले-हौले उसे गुमाँ होता गया
वो अहं की हुकूमत में समा गया
मैं से भरे इस मुकाबले के खेल में
अहंकार उस का हमसफर बन गया।
अपर्णा शर्मा
Feb.16th,24
