वो बरसाती शाम

याद है न,वो बरसाती शाम
किए थे,जब बहुत तामझाम
जल्दी निकला था मैं उस दिन
छोड़ कर अपने सारे काम.
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काली घटा सुबह से छाई थी
हवा चली थी मद मस्त चाल
शाम के पहले निकला ही था
कि मौसम ने बदली अपनी ताल.

घनघोर बादल और अंधियारी
चौराहे पर थी चुप्पी अति भारी
इक बच्ची, वहॉं गुब्बारों के संग
बेच रही थी, संग अपनी लाचारी.
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जाने क्यूँ मैं चल न सका था
जड़ सा बिल्कुल वहाँ खड़ा था
तुम उकता कर चले गई थी
मैं सब गुब्बारे खरीद रहा था.

तुम संग चाय और मैं का होना
जैसे सदियाँ पल में हो जीना
पर बच्ची की एक वो मुस्कान 
जैसे सुकून का प्याला हो पीना.
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जब जब आती ये बरसाती शाम
यादों की बरसातें लाती ये शाम
तुम्हारा बस ‘मैं’ में ही रह जाना
मुझे ‘मुझसे’ मिलवा गई वो शाम
अपर्णा शर्मा
July4th,25

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