भोर की अंगडाई संग,करती दिवस का प्रारम्भ.
हथेलियों में ईश दर्शनऔर करती धरा को प्रणाम।
व्रत-उपवास, नियमित पूजा से सदा रहती परे.
मंत्र,जप,108 नामवाला भी दूर रहते हैं खड़े।
चकरघन्नी बन गृह की,सबकी मनोवृति पहचानती.
वृद्ध जनों के मुख पर शांति देख अर्चना हो जाती।
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वृद्धों से स्नेह कर उनको मुस्कान दे जाती.
घर की सहायिका की पीढ़ा में कन्धा बन जाती।
छोटी बच्चियों में निडरता, आत्म विश्वास भर जाती.
दृढ़ नास्तिक,माँ के मंदिर में अनुपस्थित हो जाती।
हैरान करती वो,बिन पूजा कैसे मनोहर जीवन बिताती?
जीवन को तपा स्वयं ऐसी नारी स्वयं रुद्राणी कहलाती।
अपर्णा शर्मा
Sept. 26th,25
