यादें (ट्री-हाउस)


       बचपन में न जाने कितने दोस्त खेलकूद के साथी रहे। तबादला होते ही बिछड़ते लेकिन खतों के जरिए जुड़े भी रहते। दूसरी जगह जाकर, हम वहाँ के माहौल में ढल जाते और अपने पुराने दोस्तों को, नए दोस्तों के बारे में ,खतों द्वारा अवगत कराते। ये सिलसिला तब से शुरु हो गया था जब से खत लिखने लायक हो गए थे। तब पक्के दोस्त नहीं पक्की दोस्ती हुआ करती थी।
         ये बात है कोटद्वार की, मैं बीच सत्र में स्कूल में आई थी. पापा जी वहाँ के सिद्धबलि मंदिर को सड़क से जोड़ने हेतु, सेतु का निर्माण होने के लिए तैनात थे। जिसमें कुछ अड़चन आ रही थी और पापा जी कर्मठ और किसी भी मुश्किल से न हारने वाले सच्चे अभियंता हैं, इसलिए जहाँ कहीं काम उत्कृष्ट और शीघ्रता से चाहिए होता था तब उन्हीं की तैनाती की जाती थी। https://ae-pal.com/
        कोटद्वार रहते हुए, हम स्कूली लड़कियाँ जब-तब सिद्धबलि मंदिर का कार्यक्रम बनाती जिसमें खोह नदी पार करती, सिद्धबलि बाबा के दर्शन करती फिर पापा जी की साइट पर जाते और उधर से पापा जी के साथ घर आ जाते।
        इस तरह हमारा बचपन प्रकृति के बीच बीत रहा था जिसमें हम ने  कुछ पेड़ों को अपने नाम से बांट रखा था कि मैं इस पेड़ पर अपना घर बनाऊँगी, तुम्हारा घर उस पेड़ पर होगा आदि, आदि.
       जीवन की आपा धापी में दोस्त बनते रहे और एक समय ऐसा आया कि सब बिल्कुल ही बिछुड़ गए कोई खोज खबर नहीं सब अपनी नई और अलग दुनिया उलझते से कभी सुलझते।
       अचानक एक दोस्त जो बचपन से ग्रेजुएशन तक बार बार मिलती रही और बिछड़ती रही,साल 2020 में फिर से फेसबुक पर मिली. फिर तो सभी दोस्त मिल गए। उसे बचपन से सभी को जोड़ना बहुत अच्छे से आता है। https://ae-pal.com/
       अब मिले तो फिर साक्षात मिलना भी बनता ही था।
मैं उन दिनों श्रीमान पति का तबादला देहरादून हो जाने के कारण देहरादून में थी। कार्यक्रम बना कि सब देहरादून आओ और फिर मसूरी चलते हैं।
        सब आए, खूब मस्ती करी। फिर से, पेड़ों पर घर बनाने के ख्याल आया. कि बिना ताम झाम के, दिखावे से दूर हम आज भी पेड़ों पर रहने के खयाल बनाते रहे।                                                 रास्तें में, सड़कों के चौड़ीकरण के लिए कटे वृक्षो को देख मन खराब हो गया।हम आपस में कह रहे थे। अरे! पेड़ क्यूं काट जा रहे हैं ? हम जैसे घुमक्कड़ तो पेड़ों में ही रास्ते ढूंढ लेते और ट्री हाउस में रहते।
अपर्णा शर्मा
Sept. 19th,25
(देहरादून डायरी से )

यादें बहुत सताती हैं

यूँ तो भूली सी रहती है
गुपचुप सोयी रहती है
किसी बात पर किसी काम पर
चुपके से डेरा जमाती है
ये यादें बहुत सताती हैं।

दादी नानी के लाड़ प्यार में
दादा नाना के रौब दाब में
बचपन की हर कारस्तानी में
छुप कर बैठी रहती है
ये यादें बहुत सताती हैं।

विद्यालय के कोने,कक्षों में
खेल के हर संगी साथी में
शैतानी की फुलझड़ियों में
रोज शाम को आती हैं
ये यादें बहुत सताती हैं।


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अल्हड़पन की मस्ती भरी
दैनिक दांवपेंच की खिलंदड़ी
कड़क चाय सी तृप्ति भरी
जीवन में रंग भर जाती है
ये यादें बहुत सताती हैं।

युवा मन की जिम्मेदारी में
जीवन को सर्वोत्तम बनाने में
मित्रों, रिश्तों की खुशियों में
रोज ही पैर पसारती है
ये यादें बहुत सताती हैं।

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