माँ*

जब जब तीव्र होता बालक का दर्द
तड़पती माँ और चेहरा हो जाता जर्द
ढाढस दे फ़र्द अपने को बढ़ाती हौसले को
बेबस है लाचार नहीं, झाड़ती जिंदगी के हर गर्द।
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माँ और बालक का होता निराला ही संसार
जहाँ हर वक़्त होता प्रेम का अद्भुत संचार
इक दूजे के सपनों के,माँ बालक होते पूरक
मिलता जहाँ बालक के जीवन को आकार।

लेकिन जब कभी बालक तकलीफ़ में आता
माँ का रोम रोम बालक के लिए हर पल रोता
अचूक दवा, अचूक इलाज का करती वो प्रयास
सब तकलीफें उसकी हो, मन हुमायूं सा होता।
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हर मर्ज की दवा माँ के पोरों में  रहती
माना, कभी-कभी वह बेहद बेबस भी होती
हर दुविधा का हल वो भरसक खोजे
बेबस है माँ,पर कभी कमजोर ना होती।
अपर्णा शर्मा
May 12th,24

Mother’s day

माँ

बालपन के कोमल हृदय पटल पर, नित इक स्वप्न उपजता है.
निश्चल उम्र की लघु बुद्धि में,स्वप्न का रेखाचित्र उभरता है.

धुंधले से उस रेखाचित्र को, माँ रोज नए रंग दे जाती है.
संतान रंगरूपी दिशा निर्देश से, उसमें चित्रण करती जाती है.
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स्वप्न का अस्पष्ट सा खाँचा निश्चय ही पूरा हो जाता है
जब माँ का संग निश्चित ही, हरपल, हरदम रहता है.

एक दिन ऐसा आता है जीवन में,रेखाचित्र पूरा हो जाता है .
स्वप्न का कल्पित चित्रण वर्तमान में, खिलता,फलता जाता है.
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जब माँ बालक के सपने को स्वयं भी आत्मसात कर लेती है.
ऐसी माँ की संतान सदा ही जीवन में उच्च लक्ष्य पा जाती है.
अपर्णा शर्मा
14.5.23
(मदर्स डे पर )

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