बंद दरवाजे का दर्द

जहाँ सूरज के उगने से पहले जिदगी जग जाती थी
जागा,जागा होता घर और तुलसी पूजी जाती थी
सुबह सुबह का हो-हल्ला,जैसे उत्सव हो घर में
दरवाजे पर नहीं ये ताला,लगा है उस उत्सव पे।
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घर के आंगन में बड़ीया,अचार पापड़ का फैलाव
बूढ़ी दादी का बक्सा था और बच्चों का होता जमाव
चूड़ी पायल की खनखानाहट थी जिस आँगन में.
दरवाजे पर नहीं ये ताला,लगा है उस आनंद पे।
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प्रिय की प्रतीक्षा में साँझ ढले यहीं दरवाजा
सजता था दीपक और इतराता था दरवाजा
प्रिय के आने से घर भर जाता था रौनक से
दरवाजे पर नहीं ये ताला,लगा है उस रौनक पे।
अपर्णा शर्मा
August 22nd,25

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