विभावरी संग आकाश गंगा के आंचल में
कभी टंकते,कभी उधड़ते रहे अनगिनत सितारे
तब नव दिवस का संदेश दिया शुक्र नक्षत्र ने
कुछ ही समय बस शेष था अरुणोदय में।
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शैय्या को त्याग कर, कर्म को हो रहे तत्पर
गृह स्वच्छ कर, अल्पना सज रही देहरी पर
इष्ट वंदन और करबद्ध प्रतीक्षा आगमन की
नित्य स्वागत को प्रतीक्षित रहते नारी और नर।
शनैः शनैः पर्वत के पृष्ठ पर लालिमा छाई
शिशु सी किलोल करती जल तरंग पर आई
प्रकाश पिनाक से निकल कमान किरण की
डाल, पात से गुजर अट्टालिका पर छाई।
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पक्षियों का कलरव,और पशुओं का बोलना
कलियों का पुष्पों में परिवर्तित हो महकना
तितलियों के संग भौरों का होता जब गुंजन
यूँ उदित हो सूर्य,संचारित करते संसार में जीवन का।
अपर्णा शर्मा
April 26th,24
