शब्दों में शब्द जोड़ते रहे
यहीं कविता है सोचते रहे
पर अभाव मिला जब भाव का
सारे शब्द निरर्थक हो रहे।
कभी भावों का देख बवंडर
गोते खाते रहे यूँ ही दिन भर
लिखने को जब उठाई कलम
भाव का बह गया शब्द समंदर।
वो क्षण भी चमत्कार से कम न होते
जब भाव मनमस्तिष्क पर उमड़ घुमड़ छाते
शब्द मेघ की घनघोर रिमझिम से
बंजर मनजमीं को भाव तृप्त कर जाते।
और फिर कलम भी गुनगुनाने लगती
शब्दों की थिरकन कागज़ पर नृत्य करती
हर भाव शब्द संग करता वादन
तब कहीं कविता अपना संगीत पूर्ण करती।
अपर्णा शर्मा
Nov.24th,23
हे पुरुष!
हे पुरुष!
बिन स्त्री तुम निरीह से
सदा अस्तित्व से परे
संबल बन सभी का
खुद को गवांते जा रहे।
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हे पुरुष!
अपने लिए भी जियो जरा
परवाह से तू क्यूँ कर डरा
सबके लिए जीता रहा सदा
जरूरत पर अपने करे किनारा।
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हे पुरुष!
सब कुछ कैसे सह लेता
अपनी पहचान खो देता
पुरुषत्व का कल्पित ताज
और भी बोझ बढ़ा देता।
अपर्णा शर्मा
Nov.19th,23
( अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस पर)
विश्वास
हिम के पिघलते ही
आविर्भाव होते ही
निकल पड़ी गंतव्य को
रिसती, अविचल सी.
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अल्हड़पन से मचलती
कंकर, पत्थरों को रौंदती
कुछ को हटा, कुछ साथ ले
प्रेम-परकाष्ठा में विकलती .
शनैः शनैः, बनी वो विक्षनरी
शांत बहती,अत्यंत धीर धरी
वृद्धा हो, अशेष पतली धारा
लक्ष्य को आतुर, मार्ग खोजती.
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अंत में,अस्तित्व खो समन्दर हुई
मीठी सी नदी अब खारी हो गई
चटकी तो होगी चाहत और डिगा होगा विश्वास भी
आखिर क्या थी मैं ? क्या हो गई?
अपर्णा शर्मा
Nov.17th,23
