जब चला था वो सफर को
काफिला संग था साथ को
चलता रहा आगे बढ़ता रहा
नाज़ से देखता वो सभी को।
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सभी मंजिल के इस सफर में
चल पड़े ऊँची नीची डगर में
रुक गए, कुछ मुकाम पा गए
अब भी थे सभी, संग साथ में।
वो सबसे अलग दिखने लगा
बैठक में विलग सा रहने लगा
ठहाके गूँजते जब फ़िजा में
वो बुत बना चुप रहने लगा।
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हौले-हौले उसे गुमाँ होता गया
वो अहं की हुकूमत में समा गया
मैं से भरे इस मुकाबले के खेल में
अहंकार उस का हमसफर बन गया।
अपर्णा शर्मा
Feb.16th,24
अनुशासन
नक्षत्रों का निरंतर पारगमन
और दिवस का नित आगमन।
सभी एक चक्र से बंध कर
करते अनुशासन का मार्गदर्शन।
समय पर चल कर
समय पर काम कर।
समय के इस ध्यान को
अनुशासन का मान कर।
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समय ग़र टालते जा रहे
आराम यूँ ही फरमाते रहे।
काम को यदि हो घसीटते
कराहता अनुशासन रहे।
अपना खूब ख़्याल कर
किसी को बेहाल न कर।
समय सभी का क़ीमती
अनुशासन का ख़्याल कर।
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न तू अवरोध उत्पन्न कर
न अवरोध को सही कर।
अवरोध ही अनुशासनहीनता
स्वसंचालित हो और अनुशासन धर।
अपर्णा शर्मा
Feb.9th,24
वृक्ष की पत्तियों से वार्ता
मेरे वज़ूद से,दूर हो कर,यहाँ-वहाँ तो,हो गए हों
मौसम के बेमौसम होते ही,बिखर से जो गए हो।
ये ना सोचना,तुम्हारा अलग होना वज़ूद खोना है
तुम्हारे निशाँ,मेरे होने का,सबब जो बन गए हैं।
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पीले पत्ते ही अलग कर सकता है ये जालिम मौसम
नई कोपलों को रोके,वो मौसम कभी देखे नहीं गए हैं।
तुम्हारी शहादत को, मैं कभी भूल सकता ही नहीं
ऊँचाईयां हो,या फैलना तुम संग ही मैंने सब पाया है।
तुम अभी तक मेरे आस-पास,मेरी मिट्टी में हो पड़े
वज़ूद मुक्कमल से पहले,मेरे लिए,खाद भी बन गए हों।
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रे पत्तियों,तुम सिर्फ तने पर सजी ही,खूबसूरत दिखती नहीं
मिट्टी में रल कर,सदा सुंदर जीवन वनस्पति को देती रही हो।
अपर्णा शर्मा
Feb.2nd,24
