घर का दमकता सूरज नहीं,झिलमिलाती रोशनी है घर की
चिड़ियों की चहचहाट तो नहीं ,रंग बिखेरती तितली है वो।
मौसम,बेमौसम उमड़ते-घुमड़ते है बादल, गगन में
पर रिमझिम फुहार सी, हर वक़्त,बरसती है वो।
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हर खुशी को चार चांद लगाती, अपनी खिलखिलाहट से
कभी निराश मन को, नकली मुस्कान से, समझाती है वो।
अपनी लटों को संवार ,हर समाधान खोजना
और झटक कर ,कठोर निर्णय भी लेती है वो।
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छोटी से छोटी बात और काम पर, निर्भरता उसी पर
अधिकतर बड़ी बातों में, देनदारी सिफर रखती है वो।
हर दिन अपने प्रियजनों पर,अपने को करती समर्पित
प्रतिवर्ष ‘स्त्री दिवस’ पर, स्व मूल्यांकन करती है वो।
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शिव की साधना में, जैसे शक्ति का है समावेश
ऐसे ,हर उम्र में ,खुशबु सी, महकती है वो।
जिंदगी के हर चरण को, उत्सव सा मनाती
फिर भी रीतेपन को ढोए, ऐसी नारी है वो।
अपर्णा शर्मा
March8th,24
झरोखा
दो भिन्न भिन्न सी जिंदगी को,
रीति रिवाजों की दुनिया को
विभिन्नता का साक्षी बना,
सहेजता मानो, संस्कृति को।
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हवेली,रजवाड़ों में उत्सुकता को बढ़ाता
राजसी ठाठ-बाट की कहानियां सुनाता
रहस्य और आश्चर्य से भरी उस दुनिया में
आमजन तक विशेषजन का जीवन ले आता।
परंपरा की मखमली चादर से लिपटा हुआ
बंदिशों के चमकते, चुभते तारों से कसीदा हुआ
प्रजा को ललचाता ये हवेली का झरोखा
है आह और बेबसी की मिसाल ए बददुआ।
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कभी जब झरोखा खुलता है बाहर को
खुली वायु का रसास्वादन कराता बाला को
उसे भी दूसरी दुनिया टेर लगाती प्यार से
ये झरोखा बाँटता आया है आम और खास को।
अपर्णा शर्मा
Mar.1st,24
आत्मप्रशंसक
स्व ज्ञान को सर्वोपरि समझ कर
अपने को ही सर्व ज्ञानी जान कर
कूपमंडूक सा अपने को सर्वोच्च जान
सीमित दायरे को अपनी दुनिया जान कर।
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अकेले अपनी जिंदगी गुज़ारे जा रहा
खुद की खड़ी दीवारों में खुद कैद कर रहा
इन ऊँची दीवारों को अपनी सफलता जान
खुद को खुदा सा समझता जा रहा।
दुनिया से बेख़बर अपने जाल में फंसा
उन्नति, उत्थान से हो कर बेपरवाह
सोचता मेरे उत्थान से ईर्ष्यालु है सब
मुझसे अब कोई आँख न मिला रहा।
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कोई उसको निकाले तो कैसे निकाले?
जब तक वो खुद कूप से निकलना न चाहे
सब साधन लिए, हितैषी कोशिश में जुटे हुए
निकास की तीव्र इच्छा की प्रतीक्षा लिए।
अपर्णा शर्मा
Feb.23rd,24
