अलसाई सुबह में सूरज सी उगती उसकी यादें
हर सुख दुख की जिससे बांटी मैंने सब बातें
वो कुछ ना होकर भी बहुत अपना सा लगता है
हाँ वो मेरे दिल में बसता है.
जाने क्या बात है…
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कुछ दिन से वो भरमाया सा रहता है
हर बात पर बेपरवाह सा दिखता है
जिस के बिना दिन बीते आधे अधूरे
अब वो उखड़ा उखड़ा रहता है.
जाने क्या बात है ….
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सब सुविधाओं को जुटा कर मैंने
हर सुख जमा करने की ठानी मैंने
फिर भी कुछ ,कम कम लगता है
संसार कुछ कम सा लगता है.
जाने क्या बात है…
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जिस घर में बचपन बीत गया
हर कोने में यादों का ढेर रहा
मालिक बदलते देखे जिस घर के
अब अपना सा कम लगता है
घर बिखरा बिखरा लगता है.
जाने क्या बात है….
अपर्णा शर्मा
June7th,24
दोस्ती
रिश्तों के बगीचों में,महकता फूल है दोस्ती
समय की चोट पर, ठंडा मरहम सी है दोस्ती
उम्र को पछाड़कर कर जिंदगी से मिलाती
जिंदगी को खुशनुमा सफर बनाती हैं दोस्ती.
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अपनेपन की चादर को दिल में बिछा कर
सभी ग़मों को रेशमी धागा बना कर
अपने एहसासों के फूल-बूटे काढ़ कर
नई कशीदाकारी से दुनिया सजाती हैं दोस्ती.
मकानों के सूनेपन को ठहाकों में बदल देती
हर छोटी सफलता को बड़ी सी मंजिल बना देती
बात बात पर दावतों का एलान करने वाली
जिंदगी को जवाब देती लाजवाब होती हैं दोस्ती.
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कभी बोझिल से पलों को दराजों में दबा देती
खुशियों को, बैठकों की शोभा बना देती
जीवन की हर दशा को अलमारी में सजा देती
मसखरी संग,जिम्मेदारी भी खूब निभाती हैं दोस्ती.
अपर्णा शर्मा
May31st,24
अगर मगर
पुरानी होती डायरी के पीले होते पन्नों में
न जाने कितने अलसाए ‘अगर’ ‘मगर’ है बिखरे
आज भी कुछ ‘अगर’, काश की चाशनी में हैं लबालब
वहीं कुछ ‘मगर’ डायरी की दहलीज पर खड़े ठिठके से।
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कहीं किसी पन्ने पर,’किंतु’ यक्ष सवाल सा डटा
और कहीं ‘परंतु’, जवाब देकर लाजवाब सा दिखा
समय ने दफन कर दिए थे जो अपने से “किंतु,परंतु’
आज बेलौस सा मैं,उनकी ताकतें तौलता दिखा।
डायरी की ज़िल्द में सिल दिए थे जो ‘ये’ और ‘वो’
सब उधड़ कर,छितर कर, ताकतें हैं इस कदर वो
बे-आस सा मापता हूँ अब उन परों के हौसले
मलाल लिए कि,न ‘ये’ हो सका, न कर सके ‘वो’।
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अगरबत्ती के कवर से खुशबु महकाई थी डायरी में
सफेद पन्नों को विरासत बना दिया है काली स्याही ने
पन्नों में धमाचौकड़ी मची है ये वो,किंतु परंतु,अगर मगर की
दिमाग में उमड़ते शब्दों को, रंग जो दिया है स्याही ने।
अपर्णा शर्मा
May24th,24
