बेहद दुष्कर् रहा, लिखना प्रथम प्रेम पत्र
लिखूँ, दीर्घ, भावुक या संक्षिप्त कुशल पत्र।
भावों को बयां करना, कभी न रहा इतना आसान
शब्द व्यंजना में, परिवर्तित हो जाते मन के ज़ज्बात।
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कठिन रहा, पत्र का चुनाव, लिखूँ, आसमानी पत्र
या तुमसा प्यारा,लिखूँ, गुलाब सा गुलाबी पत्र।
मसि का रंग भी चार दिन से अधिक सोचता रहा मैं
काली,नीली स्याही या अपने रक्त से उतार दूँ भाव मैं।
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तुम्हारे नाम को मुस्कान से सजा, मैं चित्रकार सा, रहा मगरूर
अंत में दिल अंकित कर,हार गया दिल, फिर न रहा जरा गरुर।
दिल से लिखे ये एहसास, क्या पहुँचे हैं कभी तुम तक?
ये भाव, दिल के डाकखाने में महफ़ूज़ है मेरे अभी तक।
अपर्णा शर्मा
Nov.29th,24
बेशक
सुबह तुम्हें याद कर शुरु होता जिसका दिन
बेशक मुझे आज भी चाहत है तुमसे.
इबादत में रोज ही माँगती तुम्हारी ख़ैर
बेशक मुझे आज भी चाहत है तुमसे.
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खूबसूरती में चाँद सी चमक की चाहत
बेशक मुझे आज भी चाहत है तुमसे.
नेकीयों की अर्जियों में चाही तुम्हारी नेकी
बेशक मुझे आज भी चाहत है तुमसे.
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सांसो के इस तराने में बजे तुम्हारी सरगम
बेशक मुझे आज भी चाहत है तुमसे.
वज़ूद खोया-खोया दिखे मुझे तुम्हारे बिन
बेशक मुझे आज भी चाहत है तुमसे.
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मैं तो अपनी जानूँ, तुम्हारा तुम जानों
बेशक मुझे आज भी चाहत है तुमसे.
अपर्णा शर्मा
Nov.22nd,24
धुँआ-धुँआ
मना कर त्योहार रोशनी का
माहौल धुआँ-धुआँ हो गया
करके द्रुत आक्रमण तन पर
मन को बेहद बीमार कर गया।
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कुहासे और धुएँ का मिश्रण
धुन्ध बन कर पसर गया
सूरज की आस में हर कोई
एक किरण को तरस गया।
त्योहारों का मद माहौल जो
सभी का पोर-पोर भीगा गया
प्रदुषित होता हमारा पर्यावरण
स्वास्थ्य का पाठ भी पढ़ा गया।
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वो गुलाबी सर्दियों की लुभाती दस्तक
बीते दिनों की मायूस दास्ताँ बन गई
स्याह हुए परिवेश में फैला धुँआ
हर साल का सिलसिला बन गया।
अपर्णा शर्मा
Nov.15th,24
