विस्मृति

अर र र पहचानो ये क्या हो रहा है
अर र र संभाल लो ये क्या हो रहा है।

चलते चलते अचानक रुक जाता हूँ
बोलते बोलते बातों में बहक जाता हूँ
सोचता हूँ बहुत,कि सब भूल जाता हूँ
अर र र बताओ थोड़ा रुका हूँ या थका हूँ।

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गणित के सवाल अब पढ़ नहीं पाता
सवाल का जवाब अब बनाया नहीं जाता
शब्द और भाव जाल में अक्सर फंसता हूँ
अर र र बताओ! कठिन है सब या हैरान हूँ।

बच्चों के संग,खुद को वरिष्ठ समझ बैठा
वरिष्ठ समूह में, बिल्कुल ही नादान  दिखा
धमाल भी न कर सका,न संजीदगी से जिया हूँ
अर र र बताओ! क्या जिंदगी को समझ न सका हूँ।

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कभी-कभी भूलों को पहचानने की कोशिश में
उलझा रहता हूँ अपनी ही रची कशमकश में
उम्र के नहीं, काम के बोझ के कारनामों में दबा हूँ
अर र र बताओ! क्या विस्मृत सा स्मृतियों में जी रहा हूँ।
अपर्णा शर्मा
March21st,25

होली आई रे

घर-घर सजी,रंग रंगोली
हवा में,मादकता,छाई रे।
टेसु,गेंदा से भरी गागरी
मतवाली,होली आई रे

धीमे-धीमे,आया फागुन
होली ने,हल्ला बोला रे
रंग गए सबके,तन और मन
होली,सब की,हो ली रे।
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मुक्त मन से,खेली,जब होली
बंधन की बातें, बीती रे
इक दूजे के,रंग में रंग कर
सब पर,यौवनता छाई रे।

एक बावरा मन,खड़ा उदास
अंखियाँ तकती,देहरी रे
अंजुरी भर कर,लिया गुलाल
खुद ही,खुद को,रंगती रे।
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रंग बरसाते,हुर्रियारों की छाई
नगर,गांव में,मस्ती रे
बाट देखते, कहीं उजड़ गई
किसी की,अपनी हस्ती रे।
अपर्णा शर्मा
March14th,25

हे धरा!

हे धरा! सदा दात्री,अनुकम्पित कर
अबोध चित्त में संवेदना संचरित कर।

प्रथम ग्रास माटी ही धरी थी मुख में
आचमन जान,तूने भर लिया था अंक में।
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सर्वस्व दे ,पोषित हुआ तेरे आंचल में
रंगत जीवन की सब तेरे आशीष से।

निश्छल जान तू दात्री बनी रही
पुत्र के मान में, प्रभास खो रही।

मूढ़,अज्ञानी,हे वसुन्धरे! शोषित करता रहा
ग्राही ऐसा हुआ कि स्व कर्तव्य न समझ रहा।
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धन्य है माँ,तू स्नेह लुटाती स्वार्थी पुत्र पर
सर्वरंग से श्रृंगार करूंगा कर्तव्य मान कर।

तेरे आंचल की छाया तले  बढ़े तेरे वक्ष पर
संरक्षित होगी तू, विश्वास रख इस सुबोध पर।
अपर्णा शर्मा
March,7th,25

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